शिव महिम्न स्तोत्र: आद्यांत तक का सफल सागरी महात्म्य

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शिव महिम्न स्तोत्र
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In the tapestry of Hindu devotional literature, the Shiv Mahimn Stotra stands as a radiant gem, captivating the hearts and minds of devotees with its sublime verses and profound reverence for Lord Shiva. In this illuminating exploration, we embark on a journey to unravel the essence of this sacred hymn, delving deep into its significance, symbolism, and spiritual resonance.

The Celestial Symphony

Imagine yourself in the tranquil embrace of a sacred space, surrounded by the soft glow of flickering lamps and the fragrance of incense wafting through the air. In this serene ambiance, the Shiv Mahimn Stotra resounds, weaving a tapestry of devotion and adoration for the divine embodiment of Lord Shiva.

शिव महिम्न स्तोत्र का महत्व

The Shiv Mahimna Stotram is considered a powerful prayer that can help one attain spiritual enlightenment and liberation. It is often recited by devotees of Lord Shiva during worship and meditation.

शिव महिम्न स्तोत्र, भगवान शिव को समर्पित एक प्राचीन वैदिक स्तोत्र है, जो उनकी महिमा, गुण और शक्तियों का गान करता है। इस स्तोत्र में भगवान शिव की अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषताओं और कृपाओं को उजागर किया गया है, जो उनके भक्तों के द्वारा निरंतर प्राप्त होती हैं। शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से भक्त को शिव की कृपा प्राप्त होती है और उसके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है।

॥ अथ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम्‌॥

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशीस्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।

अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्‌ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥ १॥

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोःअतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।

स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयःपदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥ २॥

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतःतव ब्रह्मन्‌ किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्‌।

मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतःपुनामीत्यर्थेऽस्मिन्‌ पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥ ३॥

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्‌त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।

अभव्यानामस्मिन्‌ वरद रमणीयामरमणींविहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥ ४॥

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनंकिमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।

अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियःकुतर्कोऽयं कांश्चित्‌ मुखरयति मोहाय जगतः॥ ५॥

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतांअधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।

अनीशो वा कुर्याद्‌ भुवनजनने कः परिकरोयतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥ ६॥

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमितिप्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषांनृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ ७॥

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनःकपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्‌।

सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितांन हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥ ८॥

ध्रुवं कश्चित्‌ सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदंपरो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।

समस्तेऽप्येतस्मिन्‌ पुरमथन तैर्विस्मित इवस्तुवन्‌ जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥ ९॥

तवैश्वर्यं यत्नाद्‌ यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधःपरिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।

ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्‌स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥ १०॥

अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरंदशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डू-परवशान्‌।

शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेःस्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्‌॥ ११॥

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनंबलात्‌ कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।

अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसिप्रतिष्ठा त्वय्यासीद्‌ ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥ १२॥

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतींअधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।

न तच्चित्रं तस्मिन्‌ वरिवसितरि त्वच्चरणयोःन कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥ १३॥

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपाविधेयस्याऽऽसीद्‌ यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।

स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहोविकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय- भङ्ग- व्यसनिनः॥ १४॥

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरेनिवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।

स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्‌स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥ १५॥

मही पादाघाताद्‌ व्रजति सहसा संशयपदंपदं विष्णोर्भ्राम्यद्‌ भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह- गणम्‌।

मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटाजगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥ १६॥

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिःप्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।

जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमितिअनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥ १७॥

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथोरथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।

दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर-विधिःविधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥ १८॥

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोःयदेकोने तस्मिन्‌ निजमुदहरन्नेत्रकमलम्‌।

गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषःत्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर  जागर्ति जगताम्‌॥ १९॥

क्रतौ सुप्ते जाग्रत्‌ त्वमसि फलयोगे क्रतुमतांक्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।

अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवंश्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥ २०॥

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतांऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।

क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनःध्रुवं कर्तुः श्रद्धा-विधुरमभिचाराय हि मखाः॥ २१॥

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरंगतं रोहिद्‌ भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।

धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुंत्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥ २२॥

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्‌पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।

यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्‌अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥ २३॥

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराःचिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।

अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलंतथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥ २४॥

मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतःप्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।

यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमयेदधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्‌ किल भवान्‌॥ २५॥

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहःत्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।

परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरंन विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्‌ त्वं न भवसि॥ २६॥

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्‌अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्‌ तीर्णविकृति।

तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिःसमस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्‌॥ २७॥

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्‌तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्‌।

अमुष्मिन्‌ प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपिप्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते॥ २८॥

 नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमःनमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।

नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमःनमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥ २९॥

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमःप्रबल-तमसे तत्‌ संहारे हराय नमो नमः।

जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमःप्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥ ३०॥

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।

इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्‌ वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्‌॥ ३१॥

असित-गिरि-समं स्यात्‌ कज्जलं सिन्धु-पात्रे सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥ ३२॥

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।

सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥ ३३॥

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्‌ पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान्‌ यः।

स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान्‌ कीर्तिमांश्च॥ ३४॥

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः। अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्‌॥ ३५॥

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः। महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्‌॥ ३६॥

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजःशशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।

स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्‌स्तवनमिदमकार्षीद्‌ दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥ ३७॥

सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुंपठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः।

व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानःस्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्‌॥ ३८॥

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्‌।अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्‌॥ ३९॥

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥ ४०॥

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥ ४१॥

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते॥ ४२॥

श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेनस्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।

कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेनसुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥ ४३॥

॥ इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः

         स्तोत्रं समाप्तम्‌॥

तात्पर्य और अर्थ

शिव महिम्न स्तोत्र

शिव महिम्न स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का अद्भुत अर्थ और गहरा तात्पर्य होता है। यह स्तोत्र भगवान शिव की अद्वितीयता, उनके अनन्त गुण, विशेषताएं, और भक्ति की महत्ता को व्यक्त करता है। प्रत्येक श्लोक ने अपनी अलग-अलग ध्वनि में शिव की महिमा को गाते हुए, भक्त के मन को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाते हैं।

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शिव महिम्न स्तोत्र के लाभ

शिव महिम्न स्तोत्र के पाठ से भक्त को अनेक आध्यात्मिक और लौकिक लाभ प्राप्त होते हैं। यह स्तोत्र शिव की कृपा को प्राप्त करने में सहायक होता है और उसके जीवन में सुख, शांति, और समृद्धि की प्राप्ति में मदद करता है। इसके अतिरिक्त, इस स्तोत्र का पाठ करने से भक्त का मन शांत होता है और उसकी आत्मा में शिव की प्रासादिक अनुभूति होती है।

आध्यात्मिक मुक्ति: भजन में कहा गया है कि भक्ति और समझ के साथ इसका पाठ करने से आध्यात्मिक मुक्ति या मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

पापों का नाश: भजन में कहा गया है कि इसका पाठ करने से सभी पाप और नकारात्मक कर्म दूर हो सकते हैं, जिससे एक शुद्ध और सदाचारी जीवन व्यतीत होता है।

भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करना: भजन भगवान शिव की स्तुति करता है और कहता है कि भक्ति के साथ इसका पाठ करने से उनका आशीर्वाद और कृपा प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।

ज्ञान और ज्ञान को बढ़ाना: भजन भगवान शिव को सभी ज्ञान और ज्ञान के स्रोत के रूप में वर्णित करता है और कहता है कि इसका पाठ करने से ज्ञान और ज्ञान के उच्च स्तर प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।

बुराई से सुरक्षा: भजन में भगवान शिव को सभी बुराईयों का नाश करने वाला बताया गया है और कहा गया है कि इसका पाठ करने से व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा और प्रभाव से बच सकता है।

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार: भजन में भगवान शिव की स्तुति की गई है, जो सभी बीमारियों और मानसिक कष्टों को दूर कर सकते हैं, और कहा गया है कि इसका पाठ करने से समग्र शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।

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शिव महिम्न स्तोत्र का महत्वपूर्ण स्थान

शिव महिम्न स्तोत्र हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है और यह हमेशा से भक्तों के द्वारा पसंद किया गया है। इस स्तोत्र को पढ़ने से भक्त को शिव के प्रति अपनी भक्ति को बढ़ाने का अवसर मिलता है और उसका मन शांत होता है।

FAQs: आम प्रश्नों का समाधान

Q: क्या शिव महिम्न स्तोत्र को किसी विशेष अवस्था में पाठ करना चाहिए? A: शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ शिवरात्रि और सोमवार के विशेष अवस्थाओं में अधिक फलदायक होता है, लेकिन इसे अन्य समय भी नियमित रूप से पाठ किया जा सकता है।

Q: क्या शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से कोई विशेष लाभ होता है? A: हां, शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और भक्त को उसकी कृपादृष्टि मिलती है। इसके अतिरिक्त, यह स्तोत्र भक्त के जीवन में सुख, शांति, और समृद्धि की प्राप्ति में मदद करता है।

अंतिम विचार: भगवान शिव की प्रासादिकता

शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करना एक आध्यात्मिक अनुभव है, जो भक्त को भगवान शिव के साथ एकता का अनुभव कराता है। इस स्तोत्र के माध्यम से, हम भगवान शिव की महिमा का गान करते हैं और उनकी कृपा को प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करते हैं। इसे पाठ करके हम अपने जीवन को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाते हैं और शिव की आस्था में अधिक समर्पित होते हैं।

संधारण: शिव के आदर्श का अनुसरण

शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ करना एक आध्यात्मिक अनुभव है, जो हमें भगवान शिव के आदर्श का अनुसरण करने का अवसर प्रदान करता है। इस स्तोत्र के माध्यम से, हम शिव की महिमा का गान करते हैं और उनके प्रति हमारी भक्ति और समर्पण को बढ़ाते हैं। यह हमें आत्मिक शांति, समृद्धि, और समृद्धि की प्राप्ति में मदद करता है और हमें शिव के आदर्श जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है।

This detailed exploration of the Shiv Mahimn Stotra aims to shed light on its significance, interpretation, and transformative power in the lives of devotees. As we immerse ourselves in its divine verses, may we find solace, inspiration, and communion with the eternal essence of Lord Shiva.

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